1. 116

    चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२॥

    771. Chatur-murtih: He of Four Forms. 772. Chatur-bahuh: The Four-armed. 773. Chatur-vyuhah: He of the form of four forms. 774. Chatur-gatih: He Who is in the form of the four purusharthas. 775. Chatur-atma: He Who has four forms in His vyUha incarnation. 776. Chatur-bhavah: The Source of the four – varnas, asramas, purursharthas, etc. 777. Chatur-veda-vit: He Who is the Knower of the four Vedas. 778. Eka-pat: He Whose manifestation in the form of this Universe is only one-fourth of Himself.

    771. चतुर्मूर्तिः: चार रूपों वाले। 772. चतुर्बाहुः: चार हाथों वाले। 773. चतुर्व्यूहः: वह जिनका चार रूपों के रूप में है। 774. चतुर्गतिः: वह जो चार पुरुषार्थों के रूप में हैं। 775. चतुरात्मा: व्यूह अवतार में उनके चार रूप होते हैं। 776. चतुर्भवः: चार वर्णों, आश्रमों, पुरुषार्थों आदि के स्रोत हैं। 777. चतुर्वेदवित्: चार वेदों के ज्ञानी। 778. एकपत्: वह जिनका इस ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकटन केवल चौथाई भाग है।

  2. 117

    समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः । दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३॥

    779. Samavartah: He Who takes incarnations again and again for the benefit of His devotees. 780. Nivrttatma: He whose mind is turned away from worldly attachments. 781. Dur-jayah: He Who is Invincible. 782. Dur-atikramah: He Who cannot be bypassed by those who seek relief from samsaraw 785. Dur-gah: He Whose realization is constrained by our own limitations. 786. Dur-avasah: He whose place of residence (Sri vaikunTham) is not easy to attain. 787. Durari-ha: The Dispeller of the evil-minded enemies.

    779. समावर्तः: अपने भक्तों के लाभ के लिए बार-बार अवतार लेने वाले। 780. निवृत्तात्मा: जिनका मन दुनियावी आसक्तियों से दूर है। 781. दुर्जयः: जिसे जीतना असंभाव है। 782. दुरातिक्रमः: जिसे संसार से राहत पाने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता है। 785. दुर्गः: जिसका अनुभव हमारी खुद की सीमाओं से बाधित होता है। 786. दुरावासः: जिसका निवास स्थल (श्री वैकुंठम) प्राप्त करना आसान नहीं है। 787. दुरारिहा: दुष्ट मनोवृत्ति वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले।

  3. 118

    शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः । इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४॥

    788. Subha’ngah: He with an auspicious form that is meditated upon by His true devotees. 789. Loka-sara’ngah: He Who is reachable through the essence (sara) of the vedas, namely pranava. And is the object of devotion (loka-sara). 790. Su-tantuh: He Who has expanded this Universe starting from Himself. 791. Tantu-vardhanah: He Who augments the expansion of Himself into this world by protecting it. 792. Indra-karma: He Who is responsible for the powers of indra. 793. Maha-karma: He of magnanimous actions. 794. Krta-karma: One Who has achieved all there is to achieve. 795. Krtagamah: The Propounder of spiritual texts.

    788. शुभाङ्गः: जिनका शुभ रूप है, जिसे उनके सच्चे भक्त ध्यान में लाते हैं। 789. लोकसारङ्गः: वेदों के मूल (सार) से पहुंचने वाले जिनका विषय बनते हैं, यानी प्रणव, और उनकी भक्ति का उद्देश्य (लोक-सार) है। 790. सुतान्तुः: जिन्होंने अपने से शुरू होकर इस ब्रह्माण्ड का विस्तार किया है। 791. तांतुवर्धनः: वह जो इस जगह के विस्तार को बढ़ाते हैं, अपनी सुरक्षा करके। 792. इन्द्रकर्मा: वह जो इंद्र की शक्तियों के लिए जिम्मेदार है। 793. महाकर्मा: विशाल क्रियाओं के मालिक। 794. कृतकर्मा: वह जिसने सभी काम किए हैं। 795. कृतगमः: आध्यात्मिक ग्रंथों के प्रस्तावक।

  4. 119

    उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः । अर्को वाजसनः श‍ृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥ ८५॥

    796. Udbhavah: He Who rose above samsara. 797. Sundarah: He Who is handsome. 798. Sundah: He Who is soft to His devotees. 799. Ratna-nabhah: He with a gem-like navel. 800. Su-locanah: One with beautiful eyes. 801. Arkah: He Who is praised. 802. Vaja-sanih: He Who provides for the nourishment of all His creation. 803. Sr’ngi: He Who had a horn in His matsya and varAha incarnations. 804. Jayantah: The Conquerer. 805. Sarva-vij-jayi: He Who is Omniscient and Victorious.

    796. उद्भवः: वह जो संसार के ऊपर उठ गए। 797. सुन्दरः: वह जो सुंदर हैं। 798. सुन्दः: वह जो अपने भक्तों के प्रति मृदु हैं। 799. रत्ननाभः: वह जिनके नाभि में मणि की तरह कुंदल है। 800. सुलोचनः: वह जिनकी बेहद सुंदर आंखें हैं। 801. अर्कः: वह जिनकी प्रशंसा की जाती है। 802. वजसनिः: वह जो अपने सर्वजीवों के पोषण का प्रदाता हैं। 803. शृङ्गी: वह जिनके मत्स्य और वराह अवतार में होंठ में एक सींग था। 804. जयन्तः: विजयी। 805. सर्वविज्जयी: वह जो सर्वज्ञ और सर्वविजयी हैं।

  5. 120

    सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः । महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६॥

    806. Suvarna-binduh: He Who has a beautiful form with golden-colored beautiful limbs 807. A-kshobhyah: He who is unshaken by desire. 808. Sarva-vag-isvara-isvarah: The Lord of all who has mastery over all words. 809. Maha-hradah: He Who has created the great oceans so that the Earth does not become completely dry and perish. 810. Maha-gartah: The Great Charioteer of Mahabharata fame. 811. Maha-bhutah: He Who considers great men as His own. 812. Maha-nidhih: He Who has the great treasure in the form of His devotees.

    806. सुवर्ण-बिन्दुः: वह जिनका सुंदर शरीर सुवर्ण रंग के सुंदर अंगों से भरपूर है। 807. अक्षोभ्यः: जिनको इच्छा से कोई अशांत नहीं कर सकता है। 808. सर्ववागीश्वर-ईश्वरः: सभी शब्दों पर मास्त्र्य रखने वाले सबका स्वामी। 809. महा-ह्रदः: उन्होंने महाभारत के महान समुद्रों को बनाया ताकि पूर्णत: सूख जाने वाली पृथ्वी नष्ट न हो। 810. महा-गर्तः: महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अर्जुन के अरथनेर। 811. महा-भूतः: वह जो महान पुरुषों को अपने ही समान मानते हैं। 812. महा-निधिः: उनके भक्तों के रूप में महान धन का महान भंडार है।