- 31
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को । काहु काल नहिं सुमिरो तुमको ॥ ३१ ॥
He (Shankaracharya) always worshipped Lord Shankar and never for a moment pondered his mind on you. ॥ 31 ॥
उन्होने नित्य ही शंकर भगवान का ध्यान किया, लेकिन आपका स्मरण कभी नहीं किया। ॥ ३१ ॥
- 32
शक्ति रूप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछितायो ॥ ३२ ॥
Since he (Shankaracharya) did not realize your immense glory, all his powers subsided, and the lamented heretofore. ॥ 32 ॥
आपकी शक्ति का मर्म (भेद) वे नहीं जान पाए। जब उनकी शक्ति छिन गई, तब वे मन-ही-मन पछताने लगे। ॥ ३२ ॥
- 33
शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जय जय जय जगदम्ब भवानी ॥ ३३ ॥
Then, he (Shankaracharya) asked refuge in you, chanted your glory and sang ‘Victory, Victory, Victory’ to you O Jagdamba Bhavani. ॥ 33 ॥
आपकी शरण आकार उनहोंने आपकी कीर्ति का गुणगान करके जय जय जय जगदम्बा भवानी का उच्चारण किया। ॥ ३३ ॥
- 34
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥ ३४ ॥
Then, O Great Goddess Jagdambaji, you were satisfied, and in no time you presented him with his lost powers. ॥ 34 ॥
हे आदि जगदम्बा जी! तब आपने प्रसन्न होकर उनकी शक्ति उन्हें लौटाने में विलम्ब नहीं किया। ॥ ३४ ॥
- 35
मोको मातु कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो ॥ ३५ ॥
O, Mother! Severe sufferings distress me, and no one except Your Honoured Self can provide relief. Please end my pains. ॥ 35 ॥
हे माता! मुझे चारों ओर से अनेक कष्टों ने घेर रखा है। आपके अतिरिक्त इन दुखों को कौन हर सकेगा? ॥ ३५ ॥