1. 16

    यदाज्ञया भूमिजलेऽत्र संस्थे यदाज्ञयापः प्रवहन्ति नद्यः । स्वतीर्थसंस्थश्च कृतः समुद्र: तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥१६॥

    We seek refuge in Lord Ekadanta, by whose order the land and water are situated here, by whose command the water-like rivers flow and by whose command the ocean remains within the boundaries of its pilgrimage sites.

    जिनकी आज्ञा से यहाँ भूमि और जल स्थित हैं, जिनके आदेश से जलस्वरूपा नदियाँ बहती हैं तथा जिनकी आज्ञा से ही समुद्र अपने तीर्थों की सीमा में विराजमान रहता है, उन भगवान् एकदन्त की हम शरण लेते हैं ।

  2. 17

    यदाज्ञया देवगणा दिविस्था ददन्ति वै कर्मफलानि नित्यम् । यदाज्ञया शैलगणाः स्थिरा वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥१७॥

    We take refuge in Lord Ekadanta, by whose command the heavenly gods always bestow the fruits of actions and by whose order groups of mountains remain stable.

    जिनकी आज्ञा से प्रेरित हो स्वर्गवासी देवता सदा कर्मफल प्रदान करते हैं तथा जिनके आदेश से ही पर्वतों के समूह सुस्थिर रहते हैं, उन भगवान् एकदन्त की हम शरण लेते हैं ।

  3. 18

    यदाज्ञया शेषधराधरो वै यदाज्ञया मोहप्रदश्च कामः । यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥१८॥

    We seek refuge in Lord Ekadanta, by whose order Sheshnag holds the earth, by whose inspiration God of love enchants everyone and by whose order the Sun god holds the time wheel.

    जिनकी आज्ञा से शेषनाग पृथ्वी को धारण करते हैं, जिनकी प्रेरणा से कामदेव सबको मोह में डालता है तथा जिनकी आज्ञा से सूर्यदेव कालचक्र धारण करते हैं, उन भगवान् एकदन्त की हम शरण लेते हैं ।

  4. 19

    यदाज्ञया वाति विभाति वायु: यदाज्ञयाग्निर्जठरादिसंस्थः। यदाज्ञयेदं सचराचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥१९।।

    We take refuge in Lord Ekadanta, by whose command the air flows, by whose order the fire god located in the stomach etc. places remains aroused and by whose inspiration this entire universe including animate and inanimate creatures is operated.

    जिनकी आज्ञा से वायु प्रवहमान होती है, जिनके आदेश से जठरादि स्थानों में स्थित अग्निदेव उद्दीप्त रहते हैं तथा जिनकी प्रेरणा से ही चराचर प्राणियों सहित यह सम्पूर्ण जगत् संचालित होता है, उन भगवान् एकदन्त की हम शरण लेते हैं ।

  5. 20

    यदन्तरे संस्थितमेकदन्त स्तदाज्ञया सर्वमिदं विभाति । अनन्तरूपं हृदि बोधकं य: तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥२०॥

    Lord Ekadanta resides in everyone's heart, this entire universe is divided by his command. We take refuge in Lord Ekadanta whose form is infinite, who resides in everyone's heart and creates knowledge.

    सबके अन्तःकरण में भगवान् एकदन्त विराज रहे हैं, उन्हीं की आज्ञा से यह सम्पूर्ण जगत् विभासित होता है। जिनका रूप अनन्त है, जो सबके हृदय में रहकर बोध उत्पन्न करते हैं, उन भगवान् एकदन्त की हम शरण लेते हैं ।