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यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
But he who sees everywhere the Self in all existences and all existences in the Self, shrinks not thereafter from aught.
परन्तु जो सभी भूतों या सत्ताओं को परम आत्मा में ही देखता है और सभी भूतों या सत्ताओं में परम आत्मा को, वह फिर सर्वत्र एक ही आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन के पश्चात्, किसी से कतराता नहीं, घृणा नहीं करता।
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यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
He in whom it is the Self - Being that has become all existences that are Becomings, for he has the perfect knowledge, how shall he be deluded, whence shall he have grief who sees everywhere oneness ?
पूर्ण ज्ञान, विज्ञान से सम्पन्न होने के कारण जिस मनुष्य के अन्दर यह परमोच्च चेतना जाग गयी है कि स्वयम्भू आत्मसत्ता ही, परम आत्मा ही स्वयं सभी भूत, सभी सत्ताएं या सम्भूतियां बना है, उस मनुष्य में फिर मोह कैसे होगा, शोक कहां से होगा जो सर्वत्र आत्मा की एकता ही देखता है।
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स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥८॥
It is He that has gone abroad-That which is bright, bodiless, without scar of imperfection, without sinews, pure, unpierced by evil. The Seer, the Thinker, the One who becomes everywhere, the Self - existent has ordered objects perfectly according to their nature from years sempiternal.
वह पुरुष ही सर्वत्र व्याप्त है-वह तत् जो ज्योतिर्मय, शरीर-रहित, अपूर्णता के चिह्न या दाग से शून्य, स्नायु एवं नस-नाड़ी से रहित और शुद्ध है एवं पाप से बिधा नहीं है। सर्वदर्शी, मनीषवान् वह एकमेव जो सर्वत्र सब कुछ हो जाता या बन जाता है, उस स्वयंसत् पुरुष ने ही सनातन वर्षों से, अनादि काल से सभी पदार्थों को उनके स्वभाव के अनुरूप पूर्णतया ठीक-ठीक, यथातथ रूप में व्यवस्थित कर रखा है।
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥९॥
Into a blind darkness they enter who follow after the Ignorance, they as if into a greater darkness who devote themselves to the Knowledge alone.
जो अविद्या का अनुसरण करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। और जो केवल विद्या में ही रत रहते हैं वे मानों उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं।
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अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
Other, verily, it is said, is that which comes by the Knowledge, other that which comes by the Ignorance; this is the lore we have received from the wise who revealed That to our understanding.
विद्या से जो प्राप्त होता है वह दूसरा ही है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। अविद्या से जो प्राप्त होता है वह और ही है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। यह श्रुतिज्ञान हमने ज्ञानियों से प्राप्त किया है जिन्होंने हमारी बुद्धि के समक्ष उसको प्रकाशित किया।