1. 6

    एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्‌ ॥६॥

    This is the Almighty, this is the Omniscient, this is the Inner Soul, this is the Womb of the Universe, this is the Birth and Destruction of creatures.

    यह 'सर्वेश्वर' है, यह 'सर्वज्ञ' है, यह है 'अन्तरात्मा'-अन्तर्यामी, यह समस्त विश्व की 'योनि' अर्थात् जन्म देने वाला 'गर्भ' है, यह समस्त प्राणियों की 'उत्पत्ति' एवं उनका 'प्रलय' है।

  2. 7

    नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्‌। अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥७॥

    He who is neither inward wise, nor outward wise, nor both inward and outward wise, nor wisdom self gathered, nor possessed of wisdom, nor unpossessed of wisdom, He Who is unseen and incommunicable, unseizable, featureless, unthinkable, and unnameable,Whose essentiality is awareness of the Self in its single existence, in Whom all phenomena dissolve, Who is Calm, Who is Good, Who is the One than Whom there is no other, Him they deem the fourth; He is the Self, He is the object of Knowledge.

    वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, 'आत्मा' के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, 'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है, 'उसे' ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है।

  3. 8

    सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥८॥

    Now this the Self, as to the imperishable Word, is OM; and as to the letters, His parts are the letters and the letters are His parts, namely, A U M.

    अथ, यह है 'आत्मा', और 'अक्षर-शब्द' है 'ओम्'; और 'उसके' पाद (अंश) हैं उसके वर्णाक्षर, तथा वर्णाक्षर हैं 'उसके' पादांश-'अकार', 'उकार' तथा 'मकार'।

  4. 9

    जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्रा। आप्तेरादिमत्वाद् वा आप्नोति ह वै सर्वान्‌ कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥९॥

    The Waker, Vaiswanara, the Universal Male, He is A, the first letter, because of Initiality and Pervasiveness; he that knoweth Him for such pervadeth and attaineth all his desires; he becometh the source and first.

    जागरित-अवस्थावाला, 'वैश्वानरः'-वैश्व-पुरुष', अपने 'आदित्व' एवं 'व्यापकता' के कारण 'वह' है 'अकार', प्रथम वर्णाक्षर; जो 'उसे' इस प्रकार जानता है वह सर्वव्याप्त हो जाता है तथा अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है; वह स्वयं 'आदि'-उत्स एवं आरम्भ-बन जाता है।

  5. 10

    स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रा उत्कर्षादुभयत्वाद् वा उत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति य एवं वेद ॥१०॥

    The Dreamer, Taijasa, the Inhabitant in Luminous Mind, He is U, the second letter, because of Advance and Centrality; he that knoweth Him for such, advanceth the bounds of his knowledge and riseth above difference; nor of his seed is any born that knoweth not the Eternal.

    स्वप्न-अवस्थावाला, 'तेजस'--'तेजोमय मन में निवास करने वाला'-अपनी 'श्रेष्ठता' (उत्कर्ष) एवं 'मध्यमावस्था' (उभयत्व) के कारण 'वह' है 'उकार', द्वितीय वर्णाक्षर; जो 'उसे' इस प्रकार जानता है वह अपने ज्ञान की सीमाओं का उत्कर्ष करता (अभी बढ़ाता) है तथा असमानताओं से ऊपर उठ जाता है; ऐसे व्यक्ति के कुल में उसके वीर्य से उत्पन्न सन्तति 'अब्रह्मविद्' (ब्रह्म को न जानने वाली) नहीं होती।