1. 1

    ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्‌ भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत्‌ त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥

    omityetadakṣaramidaṃ sarvaṃ tasyopavyākhyānaṃ bhūtaṃ bhavad‌ bhaviṣyaditi sarvamoṅkāra eva| yaccānyat‌ trikālātītaṃ tadapyoṅkāra eva ||1||

    OM is this imperishable Word, OM is the Universe, and this is the exposition of OM. The past, the present and the future, all that was, all that is, all that will be, is OM. Likewise all else that may exist beyond the bounds of Time, that too is OM.

    ओम अविनाशी शब्द है, ओम ब्रह्मांड है, और यह ओम की व्याख्या है। भूत, वर्तमान और भविष्य, जो कुछ था, जो कुछ है, जो कुछ होगा, वह सब ओम है। इसी प्रकार काल की सीमा से परे जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह भी ॐ ही है।

  2. 2

    सर्वं ह्येतद्‌ ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌ ॥२॥

    sarvaṃ hyetad‌ brahma ayamātmā brahma so'yamātmā catuṣpāt‌ ||2||

    All this Universe is the Eternal Brahman, this Self is the Eternal,

    यह सम्पूर्ण 'विश्व' 'शाश्वत-ब्रह्म' ही है यह 'आत्मा' 'ब्रह्म' हैं एवं 'आत्मा' चतुर्विध है, इसके चार पाद हैं।

  3. 3

    जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग् वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥३॥

    jāgaritasthāno bahiḥprajñaḥ saptāṅga ekonaviṃśatimukhaḥ sthūlabhug vaiśvānaraḥ prathamaḥ pādaḥ ||3||

    He whose place is the wakefulness, who is wise of the outward, who has seven limbs, to whom there are nineteen doors, who feeleth and enjoyeth gross objects, Vaishwanara, the Universal Purusha, He is the first.

    जाग्रत्-अवस्था जिसका स्थान है, जो बहिर्गत जगत् का ज्ञाता है, जो सात अगोंवाला है, जिसके लिए उत्रीस द्वार हैं, जो स्थूल पदार्थों की रसानुभूति करता है, 'वैश्वानर' अर्थात् 'विश्व-पुरुष', 'वह' है प्रथम पाद।

  4. 4

    स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीयः पादः ॥४॥

    svapnasthāno'ntaḥprajñaḥ saptāṅga ekonaviṃśatimukhaḥ praviviktabhuk taijaso dvitīyaḥ pādaḥ ||4||

    He whose place is the dream, who is wise of the inward, who has seven limbs, to whom there are nineteen doors, who feeleth and enjoyeth subtle objects, Taijasa, the Inhabitant in Luminous Mind, He is the second.

    स्वप्नावस्था जिसका स्थान है, जो अन्तर्जगत् का ज्ञाता है, जो सात अगोंवाला है, जिसके लिए उत्रीस द्वार हैं, जो सूक्ष्म पदार्थों की रसानुभूति करता है, 'तेजस' अर्थात् 'तेजोमय मन' में 'निवास करने वाला', 'वह' द्वितीय पाद है।

  5. 5

    यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्‌। सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्‌ चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥५॥

    yatra supto na kañcana kāmaṃ kāmayate na kañcana svapnaṃ paśyati tat suṣuptam‌| suṣuptasthāna ekībhūtaḥ prajñānaghana evānandamayo hyānandabhuk‌ cetomukhaḥ prājñastṛtīyaḥ pādaḥ ||5||

    When one sleepeth and yearneth not with any desire, nor seeth any dream, that is the perfect slumber. He whose place is the perfect slumber, who is become Oneness, who is wisdom gathered into itself, who is made of mere delight, who enjoyeth delight unrelated, to whom conscious mind is the door, Prajna, the Lord of Wisdom, He is the third.

    जब कोई सोता है तथा किसी भी कामना की अभिलाषा नहीं करता, न किसी स्वप्न को देखता है, वह है पूर्ण सुषुप्तावस्था। सुषुप्ति जिसका स्थान है, जो 'एकीभूत' हो गया है, जो प्रज्ञानघन अर्थात् स्वयं में घनीभूत प्रज्ञा है जो केवल आनन्दमय है, जो निरपेक्ष आनन्द का रसास्वाद करता है, सचेतन मन जिसके लिए द्वार है 'प्राज्ञ' 'प्रज्ञा का ईश', 'वह' तृतीय पाद है।