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सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ६ ॥
I am present in the heart of all living beings. It is from me that memory, knowledge and purification (elimination of defects like doubt etc.) are achieved. Through all the Vedas, I am the object worth knowing and I am also the knower of Vedanta and the Vedas.
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ । मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश अभाव) होता है । समस्त वेदों के द्वारा में ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ ।
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मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ ७ ॥
(You) be of steadfast mind in Me; Become my devotee and my worshipper; Greet me; In this way, by becoming self-oriented (i.e. whose ultimate goal is I), by uniting your soul with Me, you will attain Me.
(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे ।