1. 6

    श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥

    (O Mother) a swapaka (a dog-eater or chandala) (from whose mouth nothing much comes out in terms of good speech) becomes jalpaka (talkative) with speech like a madhupaka (from whose mouth good speech comes out like honey) (by your grace), a ranka (poor and miserable) becomes niratanka (free from fear) forever, and moves about having obtained million gold (by your grace), O Aparna (another name of DevI Parvati), when your prayer (and glory) enter one’s ear (and sits in the heart), such is the result, (then) who among men can know, O Mother, the destiny which your holy japa can unfold?

    हे माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्र का एक भी अक्षर मेरे कान में पड़ जाए तो उसका फल यह होगा कि मूर्ख चंडाल भी मधुपाक के सामान मधुर वाणी उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता हो जाता है ; दीन मनुष्य करोड़ो मुद्राओं से संपन्न होकर चिरकाल तक निर्भर विहार करता रहता है | जब मंत्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जप में लगे रहते हैं उनके जप से प्राप्त उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है ?

  2. 7

    चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः । कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥७॥

    (O Mother) (Lord Shankara), who is smeared with chitabhasma (ashes from the cremation ground), whose food is the poison, whose clothes are the directions, … who has matted hairs on his head, who wears the garland of the king of snakes around his neck; (inspite of all this he is called) PashupatI (the lord of the pashus or living beings), he carries a begging bowl of skull in his hand but is worshipped as Bhutesha (the lord of the bhutas or beings) and got the title of Jagadisha eka (One lord of the universe), … O Bhavani, all this is because of the result of your panI grahana (accepting your hand in marriage).

    भवानी ! जो अपने अंगो में चिता की राख लपेटे रहते हैं, जिनका विष ही भोजन है, जो दिगंबरधारी {नग्न रहनेवाले} हैं, मस्तक पर जाता और कंठ में नागराज वशुकी को हार के रूप में धारण करते हैं तथा जिनके हाथ में कपाल सोभा पाता है , ऐसे भूत्नात पशुपति भी जो एक मात्र `जगदीश’ की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारन है ? यह महत्व उन्हें कैसे मिला ? यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल हैI अर्थात – तुम्हारे साथ विवाह होने से उनका महत्व बढ़ गया हैI

  3. 8

    न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

    (O Mother) I do not have the desire for moksha (liberation); neither have I the desire for worldly fortune, neither do I long for worldly knowledge, O ShashI MukhI (the moon-faced one); I do not have the desire for enjoying the worldly comforts again, henceforth I implore you, O Mother, may you direct my life towards (the rememberance of your names), (the string of your holy names) MridanI RudranI Shiva Shiva Bhavani; may my future life be spent in performing japa of your holy names.

    मुख पर चंद्रमा की शोभा धारण करने वाली माँ ! मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की भी अभिलाषा नहीं है; न विज्ञान की अपेक्षा है, न सुख की अकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म मृडानी, रुद्राणी, शिव-शिव भवानी इन नामों का जपते हुए बीतेI

  4. 9

    नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः । श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥

    (O Mother) I have not worshipped you as prescribed by tradition with various rituals, (On the other hand) what rough thoughts did my mind not think and my speech utter? O Shyama, inspite of this, if you indeed, to a little extent, to this orphan … have extended your grace, O supreme mother, it indeed only becomes you (i.e. is possible for you).

    माँ श्यामा ! नानाप्रकार के पूजन सामग्रियों से सभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी | सदा कठोर भाव का चिंतन करने वाली मेरे वाणी ने कौन सा अपराध नहीं किया है ? फिर भी तू स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथ पर जो किंचित कृपा दृष्टि जो रखती हो , माँ! यह तुम्हारे ही योग्य है | तुम्हारे जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है |

  5. 10

    आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि । नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०॥

    (O Mother) I have sunk in misfortunes and therefore remembering you now (which I never did before), O Mother Durga, (you who are) an ocean of compassion, … (therefore) do not think of me as false (and my invocation as pretence), (because) when children are afflicted with hunger and thirst, they naturally remember their mother (Only).

    माता दुर्गे ! करुणासिंधु महेश्वरी ! मई विपत्तियों में फंस कर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ { और इससे पहले कभी नहीं किया } इसे मेरी शठता न मान लेना- क्योंकि भूख,प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते हैI